450 साल पुराने साड़ी कारोबार को लगा ग्रहण, उपेक्षा के कारण मालिक से मजदूर बन गए बुनकर
450 साल पुराने साड़ी कारोबार को लगा ग्रहण, उपेक्षा के कारण मालिक से मजदूर बन गए बुनकर
आजमगढ़ के साड़ी उद्योग की पहचान पूरे विश्व में थी। पूरी दुनिया से यहां खरीदार आते थे लेकिन उपेक्षा के चलते इस कारोबार का बुरा हाल है। बुनकर जो हथकरघा के मालिक थे अब नौकर की तरह काम करते हैं।
एक दौर था जब आजमगढ़ व आसपास के जिलों की पहचान उसके साड़ी उद्योग से होती थी। 430 साल पहले शुरू हुए साड़ी कारोबार की अंग्रेजों के दौर में भी तूती बोलती थी। इस उद्योग ने देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में प्रसिद्धि हासिल की और नाम मिला बनारसी साड़ी का लेकिन आजादी के बाद सरकारों की उपेक्षा ने करघा मालिकों को मजदूर बना दिया और साड़ी निर्यात करने वालों को मालिक।
हुमायूं के समय आजमगढ़ आये थे बुनकर
आजमगढ़ के मुबारकपुर में हुमायूं के समय बुनकर आये थे। तभी से यहां साड़ी का करोबार हो रहा है। मुबारकपुर की साड़ी को बनारसी साड़ी के नाम से भी जाना जाता है। यहां की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि बुनकर बनारसी के साथ ही ऐसी साड़ियां भी बनाते हैं कि आम आदमी भी उसे खरीद सके।
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दो सौ से 200 तक की बनती है साड़ी
मुबारकपुर में आज भी 200 से लेकर 20 हजार तक की साड़ियां मिल जाती है। पहले जब बुनकर हैंडलूम पर बुनाई करते थे तो उन साड़ियों की अलग चमक होती थी लेकिन समय के साथ यहां बड़ी संख्या में पावर लूम लग गये हैं। वहीं सरकारों ने भी हैंडलूम की तरफ ध्यान नहीं दिया। प्रोत्साहन के आभाव में यह उद्योग गर्त में चला गया।
समितियों ने जमकर की लूट
नब्बे के दशक में इस कारोबार पर लोकल व्यापारी और बुनकर समितियां शिकंजा कसने लगी। बुनकरों का करोड़ों रुपये समितियों ने लूट लिया। यहां जांच में 11 करोड़ के इंसेंटिव घोटाले का खुलासा भी हो चुका है। बुनकरों को उनका हक नहीं मिला जिसके कारण वे गरीब होते गए। हथकरघों पर ताले लटकते गए।
पिछले एक दशक में स्थिति इतनी बदतर हो गयी कि बुनकर अपने ही करघे पर कारोबारियों के लिए मजदूरी रहे हैं। अब बुनकर साहूकारों से रेशम और धागा लेकर उनकी साड़ी तैयार करते है। प्रति साड़ी उन्हें दो सौ से चार सौ तक मजदूरी मिलती है जिससे वे अपने परिवारों के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करते है। यहां तक कि बुनकरों के लिए बने विपणन केंद्रों पर भी साहूकारों का ही कब्जा है।
चाइना व बेंगलूरू से आता है रेशम
साड़ी बुनने के लिए रेशम चाइना से आता है। वहीं जरी वाराणसी, बेंगलूरू आदि शहरोें से मंगायी जाती है। अब जरी तो मिल जा रही है लेकिन रेशम की समस्या अब भी बनी है। वहीं इनकी कीमत बढ़ गई। इससे कारोबार पर बुरा असर पड़ रहा है।
नहीं मिल रही सरकारी सहायता
बुनकर अब्दुल सत्तार असरफ, रहमान, अब्दुला, एहसान अहमद, सुहेल, गुफरान, फैजान, यासिर, नदीम, राशिद आदि का कहना है कि सरकारों ने कभी उनकी समस्याओं की तरफ ध्यान नहीं दिया। हालत है कि उनका परिवार दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज है। समितियों और दबंग करोबारी हमारे हक पर डाका डाल रहे है। जांच होती है घोटाले खुलते है लेकिन कार्रवाई नहीं होती।
ओडीओपी का नहीं मिला बहुत लाभ
साड़ी कारोबारी यासिर बताते हैं कि सरकार ने साड़ी उद्योग को एक जनपद एक उत्पादन योजना में शामिल किया है। सरकार इसे प्रोत्साहित करने का प्रयास कर रही है लेकिन जो मूल समस्या है उसपर किसी का ध्यान नहीं है।
आयात-निर्यात की व्यवस्था न होना बुनकरों के लिए सबसे बड़ी समस्या है। अगर बुनकर माल तैयार भी कर लें तो उन्हें बाजार नहीं मिलता। निर्यात के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। अब बाहर से कारोबारी नहीं आते हैं। महंगाई से आर्थिक स्थिति भी बिगड़ गई है।
अपने ही करघे पर करते हैं मजदूरी
बुनकरों का कहना है कि पहले वे अपनी साड़ी तैयार करते थे। व्यापारी आते थे और साड़ी खरीदकर ले जाते थे। पूर्व में हुए दो दंगों के बाद बाहर से कारोबारी आना बंद हो गए। हमारे पास इतना धन नहीं है कि हम साड़ी का स्टाक तैयार कर सके। इंसेन्टिव समितियां खा जाती हैं।
अब हम साहूकारों से कच्चा माल लेकर उन्हीं के लिए साड़ी तैयार करते हैं। हमें सिफ मजूदरी मिलती है। साड़ी से जो मुनाफा होता है वह उन साहूकारों को होता है जिनके लिए हम काम करते है। अपने ही करघे पर हम नौकर बन गए हैं।
